भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमें अपना बताये जा रहे हैं / भावना

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:27, 9 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भावना |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem>...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमें अपना बताये जा रहे हैं
मगर सब कुछ छुपाए जा रहे हैं

पके हैं कान जिन किस्सों को सुन कर
वही फिर- फिर सुनाये जा रहे हैं

उसी को कह रहे हैं अन्नदाता
उसी को ही सताए जा रहे हैं

हमें है न्याय की हरदम प्रतीक्षा
वो मुजरिम को बचाए जा रहे हैं

सुना है कोख में अब आसमां की
भरम के फल उगाये जा रहे हैं

जहां से लूटने की साजिशें हो
वहीं पहरे बिठाए जा रहे हैं

उजाले लेकर भी वो क्या करेंगे
जिन्हें अंधे बनाये जा रहे हैं