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कितनी बार / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

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जब से टूटे हैं स्वप्न
चूर-चूर हुईं इच्छाएँ
छोड़ दिया है कहीं भी जाना
लौट आई है यथार्थ में
जाना है मूल्य अपने होने का
आखिर कब तक
उसे भेड़-बकरी की तरह
परखा जायेगा
बातें बड़ी क्रांतिकारी
लेकिन अनंत रूढ़िवादी
वो समझते नहीं मूल्य जीवन का/सपनांे का
कीमती है वही जो बाहर फैला है
मुँह से निकले शब्द की
कोई कीमत नहीं
फिसलते हैं बार-बार वादों से
लटकने के लिए नित नये बहाने
ऐसे बाजार में
एक सीधी-सादी लड़की
क्या कर सकती है
कि नकार दे ये समाज
और डूब जाये अपने घेरे में
क्योंकि कोई हाथ नहीं पकड़ता
बुन ले एकान्तिक जाल
जहाँ ध्वनियाँ प्रतिध्वनियाँ बन जाती हैं
क्योंकि गुजरा जाता है जीवन
और कोई आवाज नहीं दे रहा
दुख बार-बार
समुद्र की लहरों की तरह
जीवन को पछाड़ता है
वो जब भी हाथ बढ़ाती है
तट पर पहुँचने से पहले ही
निराशा की लहर
उसे लौटा ले जाती है
कितनी बार
किस-किस को
सौंपे अपना सब-कुछ
कुछ दूर
और कुछ देर तक
साथ चलने के लिए।