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बाजार / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

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बाजार की अपनी एक भाषा है
अपनी एक परिभाषा है
चमकीले रूप में ब्लैक-होल
गहन अंधकार से भरा
लील लेगा सभी इच्छाएँ,
सभी आकांक्षाएँ
रंग वैसा ही लुभावना
जेसा जो सोचे
जकड़ता है मस्तिष्क को
दैत्याकार रूप से
हर पल अपने पेट में ले जाता
लाखों-करोड़ों खरीदार
बस दो पहलू हैं सिक्के के
विक्रेता और खरीदार
ग्राहक शब्द ज्यादा उपयुक्त है
आती है सही बू इस शब्द से
सब जानते हैं ग्राहक किसके होते हैं
बस बाजार भी वही है
वही भाव, वही स्वभाव
वही लुभाने के नित नये अंदाज निराले
कभी कोई स्कीम,
कभी कोई डिस्काउंट,
कभी कोई ऑफर,
एक के साथ एक फ्री,
एक के साथ दो फ्री,
एक के साथ तीन फ्री,
तुम्हारे ही बाल हैं
कटकर गिरेंगे तुम्हारे सामने ही
बिंधेगा बाल-बाल तुम्हारा ही
ओह बाजार!
आह बाजार!
वाह बाजार!
तुम हो कितने होशियार
हवा को तुमने बेचा
पानी को तुमने बेचा
आग तो लगा ही रहे हो
सब अपनी पूँछ की आग
बुझाने को फिर रहे हैं
लेकिन तुम तो फँूक मार-मारकर सुलगा रहे हो
जले हुए की जान और जला रहे हो
तुम्हें किसी की जान से क्या
तुम्हें सिर्फ मुनाफा देखना है
तुम्हारे तो बस बैंक भरें
चाहे कोई जिये या मरे।