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कायाकल्प / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

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बड़ा मुश्किल है
कठिन समय में
संवेदना होना
इसके साथ जीना
हर पल टपकता
कतरा-कतरा आँसू
या तो बन जाओ पत्थर
पड़े रहो कहीं भी
धूप में फिर भी तपोगे
कहते हैं
पत्थर भी रो देता है कभी
अपनी जड़ता पर
शायद इंसान बनने के लिए

या तो बन जाओ पेड़
फल दोगे
तो झिंझोड़े जाओगे
जलावन दोगे
तो तोड़े जाओगे
विकास के नाम पर
उखाड़े जाओगे
और नहीं तो
लिख देंगे नाम
काटकर तुम्हारी त्वचा
जब तक रहोगे, सहोगे
कहते हैं
वृक्ष भी तड़फते हैं
शायद इंसान बनने के लिए

या तो बन जाओ नदी
बहता जल
समेटता गंदगी
चाहे जैसे भी
कोई उखाड़े, पछाड़े
कहीं भी बना दें बाँध
मोड़ दें धार का रुख
कलकलाने न दें मर्जी से
कहते हैं
नदी भी सिसकती है
शायद इंसान बनने के लिए
बस एक इंसान ही
नहीं बना रहना चाहता इंसान।