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कभी मौसम / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

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छोटी-छोटी बातों के पुल
बनते-बिगड़ते
पार ही नहीं कर पाये
बढ़े हाथ रह गये शून्य में
बढ़े कदम रह गये हवा में
सिर्फ देखा एक-दूसरे को
दो किनारों पर काल
दो कगारों पर समय
अँधेरी गहरी दरार से
उठती गर्म हवाएँ
झुलसाती, तपाती
कहाँ न थी आग
हाथों पर अंगारे
मुँह से झरते अंगारे
कदमों के नीचे अंगारे
ज्वालामुखी के मुहाने पर
जल ही तो जल रहा था
कैसे मिलाते हाथ।