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एलिगेटर / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

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निगलते हैं
उगलते हैं
एलिगेटर
ऊपर से नीचे आते
नीचे से ऊपर जाते
मायावी संसार के
दैत्यों ने
नये रुप धर
साधु के भेष में छली
कमजोर के सामने बली
फिर चूसने को रक्त
वैश्वीकरण की
नई परिभाषा गढ़ी है
सौदागर फिर निकले हैं
नया आकर्षक सामान लेकर
क्षणभर का सुख
प्रशीतित हवा
स्वागत में द्वार खोलते हाथ
मोहक मुस्कानों वाली बालाएँ
लुटा दोगे तुम खुद ही
अपनी चमड़ी-दमड़ी
खुशी-खुशी
डाल लोगे अपने गले में फंदा
इनके तो कचरे के डिब्बे भी बड़े हैं
अब तो कचरे से भी
ईंधन निकाल लेते हैं
बाकी बचे हुए को भी
पीसकर सँभाल लेते हैं
आयेगा वो भी मिलावट के काम
आनेे वाली नस्लों का भी
हो जायेगा काम तमाम
मगर तुम तो मदहोश हो
यौवन की कलाओं में
तुम खड्गरहित
तुम कापुरुष
तुमसे वैसे भी कैसा डर
इन विज्ञापनों से कौन बचा है
ये तो घर-घर में घुसा है
ये नरभक्षी मगरमच्छ
निगलते हैं लाखों-करोड़ां
उगलते हैं सिर्फ चंद कंकाल
जाओ, खुशी-खुशी जाओ
खुद का शिकार करवाओ
नाचो, गाओ, मौज मनाओ।