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कंजक / आरती तिवारी

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बड़े घरों की बेटियाँ
रेशमी परिधानों की छटा बिखेर
जा चुकी हैं मुंह जूठा करके
और कुछ
और बच्चियां सिर्फ चख के
चली गईं

कुम्हलाए,बुझे चेहरो पर
उत्सव की गुलाल लिए
सेठों के बच्चों की उतरन
मटमैले रंगों के
सीवन उधड़े कपड़ों में
जो डोलती हैं दिन भर
इधर से उधर

ये मज़दूरों की छोरियाँ
लप लप खाये जा रही हैं खीर
और ऐसे कि कोई देख न ले

इनकी बन आई है इन दिनों
सप्तमी,अष्टमी नवमी
जीमेंगी भरपूर
करेंगी तृप्त पुण्यात्मा सेठानी को

ज्वारों में खिलती है
एक हरी किलकारी

इनमें भी वही
हाँ वही तो है
शक्तिरूपा ब्रम्हचारिणी