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दृष्टि / सरस दरबारी

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रोज़ की तरह, आज भी
वह खतरों को टोहता हुआ, बढ़ गया
और फ़ेंक गया एक कंकड़
अंत:स के कई अनबूझे प्रश्नों में
कई प्रश्नजैसे
क्या सोचता होगा वह!
शायद शीश को कुछ ऊपर उठाये-
पूछता होगा ईश्वर से-
क्यों छीना मुझसे मेरा उजास
और ठेल दी,
एक अंतहीन निशा मेरी ओर!
क्या मैं तुम्हे प्रिय न था?
या फिर
क्या है उसका 'उजास'
कोयल की बोली?
लहरों का स्पर्श?
बारिश की फुहार?
या विगत स्मृतियाँ?
ऐसे में याद आ जाता है
वह सहपाठी
NSS के छात्रों से घिरा हुआ
हम बारी बारीसे उसे नोट्स पढ़कर सुनाते-
और वह उन्हें ब्रेल में लिखता जाता-
'स्लेट' और 'स्टाईलस' पर
यंत्रवत, दायें से बाएँ चलती उँगलियाँ-
हमारा कहा जज़्ब करती जातीं
और बाएँ से दायें
उभरे हुए बिन्दुओं का स्पर्श कर
आत्मसात करती जातीं-
अद्भुत!
ऐसे ही एक दिन ठिठोली में-
हमने, उसके मानस में अंकित,
अपनी छवियों को टटोला था!
और फिर एक एक कर उसने हमारे व्यक्तित्वों को उकेरा था-
स्तब्ध थे हम सब!
कैसे नहीं देख पाए थे हम-
जो उसके सहज मन ने पहचाना था!
क्या परस्पर द्वेष, व्यक्तिगत हितों ने
असलियत को नकारकर-
हमें आधा सच दिखाया था-
उस दिन खुद को ईश्वर से दूर-
और उसे उनके करीब पाया था!