भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मंतव्य / सरस दरबारी
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:43, 15 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरस दरबारी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
शायद सुन रखा था तुमने
अथाह प्रेम और अथाह घृणा के बीच
एक महीन लकीर है
बहुत प्यार करते थे ना
इसलिए मिटाना चाहा मुझे
उस एक बोतल तेज़ाब से!
लो तुम्हारी घृणा जीत गई
तुम्हारे प्रेम से –
मेरी पीड़ा से –
मेरे वर्तमान, मेरे भविष्य से!
चलो मैं अपनी ज़िद्द छोड़ती हूँ
आओ प्रेम करो मुझसे
चाहो जी भरकर!
चाह सकोगे?
मैं बदल चुकी हूँ
अपना लो मुझे
अपना सकोगे?
फिर मान लो
वह प्रेम नहीं वासना थी
तुमने केवल एक देह चाही
आत्मा तो अब भी वही है!