Last modified on 16 नवम्बर 2017, at 14:51

आउट-डेटेड संविधान / अनुराधा सिंह

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:51, 16 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनुराधा सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वह कि जिसने
सुरंग में पहली बारूद भरी थी
और जिसने
पुरुषों के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता बताया था
जाने कबसे उसे ही ढूंढ रही हूँ मैं
कि जब तुम यह ‘स्त्री सुबोधिनी संविधान’ लिख रहे थे
तो क्या तुम एक भी ऐसे पुरुष से नहीं मिले
जो उजले, निखरे, ताज़ा चेहरों से प्रेम करता हो
जिसे सोती सुंदरी सुंदर लगती हो
और ज्ञान बघारती पत्नी जिम्मेदार
या जिसे बस एक बात
एक मस्तिष्क
एक दिल
एक देह
एक सोच
एक आवाज़
एक स्पर्श
एक चाल
एक सुगंध
एक दृष्टि
बस एक झलक भर से प्रेम हो जाए
तुम्हारे हवनकुंडों की समिधा बनते बनते
न जाने कितनी देहें, दिल और दिमाग
जो बोल, सुन और देख सकते थे
और शायद बिना लाग लपेट वाला प्रेम भी कर सकते थे
धसकी अँगीठियों में तब्दील हो गए
रंग और मुश्क़े हिना हल्दी, तेल और आटे की
बसायन्ध में खेत रहे
भंवों का पसीना झुलसे गुलाबों तक ही छनक गया
कितना ही प्रेम झिलमिलाती आँखों से
सरक गिरा फूंकनी के रास्ते
फुंक गया खांड़ू की पोली लकड़ियों के साथ
यार, अगर तुम्हें बड़े बड़े हंडे और देग माँजती
स्त्री इतनी ही मोहक लगती थी
तो वह कौन था
जो मधुबाला, नर्गिस और मीना कुमारी पर मर मिटा था
तुम समूचा प्रेम लील गए
कई बार तो डकार भी नहीं ली
और कैज़ुअल वर्कर्स बिछाते ही रह गए
बजरी और धधकता डामर
तुम्हारे पेट से दिल जाते सिक्स लेन एक्सप्रेस वे पर।