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यादों की यात्रा / कविता पनिया
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पहाड़ों से जब मेरे शब्द
गूंजकर प्रतिध्वनि में बदले
तो झाग भरे झरने बनकर लौटे
उन बुलबुलों को मैंने अपनी कलम से फोड़ - फोड़कर कविता बना ली
लिख दी आसमान के कोरे कागज़ पर
जहाँ पंछी अपने पंखों में उसे समेटकर
उस घोंसले में ले जाता है
जो तुम्हारे आंगन वाले नीम के पेड़ पर बना है
मेरा विश्वास है जब पंछी गहन निद्रा में होते हैं
तब तुम सपनों से जागकर उनके पंखों पर लिखी कविता पढ़ते हो
जिसे भोर के स्वर में मैं सुनती हूं
कुछ शब्द अटक जाते हैं
उस नीम की पत्तियों में
जो हवा के साथ टकराने पर एक एक कर गिरते हैं
तुम्हारे आसपास
जिन्हें बीन - बीनकर किताबों में तुम दबाते हो और वह छप जाते हैं
अपने स्वाभाविक हरे रंग में