भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्यों नहीं होश में रहना चाहे / जयप्रकाश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:24, 21 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयप्रकाश त्रिपाठी |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ख़ुद से बावस्ता क्या-क्या चाहे।
क्यों नहीं होश में रहना चाहे।
अपनी दुनिया की गुफ़्तगू पर वो,
क्या पता, कुछ नही कहना चाहे।
आरजू जाने वो किस-किस की करे,
होना कितना बड़ा ख़ुदा चाहे।
जब से है शोरगुल में चारो तरफ़,
रोज़ ताज़ा कोई हवा चाहे।
अपनी आदत से परेशाँ इतना,
ख़ुद में ख़ुद को यहाँ-वहाँ चाहे।
कोई जीने का सबब पूछ रहा,
कोई मरने का भरोसा चाहे।
पेट भरता नहीं तिजारत से,
जब से ईमान का सौदा चाहे।
कुछ भी साबुत न रहे पहले-सा
आए अब ऐसा जलजला, चाहे।