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किसी दिन कोई बरस / विवेक चतुर्वेदी

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किसी दिन कोई बरस बरसती किसी रात में
तुम खटखटाओगी द्वार एक आकुल वेग से
जैसे कोई खटखटाता हो अपने ही घर का द्वार।
द्वार मैं खोलूँगा और एक निशब्द
विस्मय भर लेगा तुमको, बुला लेगा
उस रात मैं ढूढँूगा तह कर रखे गए कुर्ते और
बिना उनके बड़े-छोटे की बात हुए तुम पहन लोगी उन्हें।
उबालूँगा दाल-चावल तुम्हे खिलाऊँगा
दोनों नहीं पूछेंगे देर रात तक कुछ भी
एक निशब्द समय की गोद में बैठे रहेंगे
बीच में जली होगी आग
फिर तुम्हें सुलाऊँगा मूँज की खाट में
और अपने घुटनों में रखे सिर रातभर तुम्हें सोता हुआ देखूँगा
एक ऐसा दिन यकीनन मेरी डायरी में दर्ज है।