भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मन का कोरा दर्पन / विष्णु सक्सेना
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:08, 1 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विष्णु सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मन का कोरा दर्पन तेरे नाम करूँ।
भँवरों का मदमाता गुंजन,
तितली की बलखाती थिरकन,
भीनी-भीनी गंध पुष्प की,
कलियों का छलका-सा यौवन
हरा-भरा ये उपवन तेरे नाम करूँ।
मन का कोरा दर्पन तेरे नाम करूँ।
शीतल मेघ छटा केशों में,
पलकों में दुनिया सपनों की,
गालों में है भाव गुलाबी,
अधरों पर बातें अपनों की।
दहका-सा आलिंगन तेरे नाम करूँ।
मन का कोरा दर्पन तेरे नाम करूँ।
करूँ निछावर ऋतुएँ तुझ पर,
बातें करूँ रंगोली से,
दीवाली से करूँ आऱती,
नज़र उतारूँ होली से।
भीगा-भीगा सावन तेरे नाम करूँ।
मन का कोरा दर्पन तेरे नाम करूँ।