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पकी-मिट्टी के दिये / आनंद खत्री

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पल ही लगे थे
भीगी गुंथी हुई
कच्ची-मिट्टी को
कुम्हार के हाथ कि
सुगढ़-सुनारी अँगुलियों ने
चाक की अथक-बेरुक रफ़्तार से
कच्चे दिये बनाये थे।

नीम की ठण्डी छाँव में
सुखाया था इनको
कुछ दिये वहीँ पे टूटे आशिक़ से
बस पसरे और बिखर गये।
कुछ दिये, शायर, हम से थे
पकने को तैयार बहुत।

हयात की तपिश थी
शायर दिये पुख्ता हुऐ।
आज शाम कुछ देर को
नन्हीं सी लौ को रिझाने को
तेल और बाती से हम
सजाये जायेंगे।

घर का हर अँधेरा कोना
छत और तुलसी की छाओं
यहाँ कुछ देर को जलेंगे अपने हिस्से में
तुम्हारी दीवाली मानाने को।

हम जले हुऐ चिराग की मिट्टी
किसी की भी दीवाली को
दोबारा काम नहीं आती।
इस पके हुऐ पुख्ता बदन को
फ़िरमिट्टी में मिलाना
कच्चा हो जाना
सदियों की मशक्कत है।
किसी एक दिन को इतना रोशन किया
कि सब दिन इंतज़ार में निकल गये।