भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मक़बूल का मक़बरा कहाँ है / रूचि भल्ला

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:07, 7 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रूचि भल्ला |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बादलों के पार आसमान के सौवें माले पर
अब भी खड़ा है मक़बूल
रंग रहा है दूसरी कायनात को
मक़बूल कभी मरते नहीं
बूढ़े होते हैं ईश्वर जंग खायी मशीनों की तरह
दयनीय और उबाऊ लगते हैं खड़े
मंदिर की सलाखों के भीतर
 
जबकि मक़बूल हौसलों के साथ जीते हैं
चोट खाते हैं और जी जाते हैं जीवन
ईश्वर को कोई पत्थर नहीं मारता
न ही देश निकाला देता है
अपना लेते हैं सब पत्थर को
मौन मूर्तियों में ढाल कर
विट्ठल को भी अपना लिया था पंढरपुर ने
आज पंढरपुर विट्ठल की धरती है
धरती तो मक़बूल की भी थी
जिसने लिया था वहाँ जन्म
विट्ठल तो आकर बस गए थे घूमते-घामते
बना लिए थे ठिकाने
जो मैं जानती पंढरपुर मक़बूल की धरती है
मैं विट्ठल के मिलने से पहले
मक़बूल से मिलने जाती
ईश्वर तो फिर भी मिल जाते देर सवेर
मैं मक़बूल को खोजती
मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ने से पहले
मक़बूल के गली कूचे में जाती
जाती उसके घर की छत पर
जहाँ चाहा था उसने
समूची कायनात को रंगना
मैं विट्ठल की मुरली से पहले
मक़बूल की कूची को अधर से लगाती
जो मिलते मक़बूल तो पूछती
जब तक रहेंगे धरती पर घोड़े
तुम लौटते रहोगे न उनसे मिलने
 
जैसे लौटता है बसंत
जैसे फूटती है सरसों
जैसे लौटता है सरहद से विजयी सेनानी
जैसे निकलता है स्याह अँधेरे को चीरता चाँद
कहती तुम लौट आना अपने देस
आकर बताना विट्ठल को
कि दुनिया के सारे भगवान मिल कर एक होते हैं
पर मक़बूल एक अकेला एक होता है
जिसे पैदा किया था पंढरपुर की धरती ने
जिस पर फ़िदा थे दुनिया के सब रंग
जिसके चले जाने से अब रूठ गई है
तूलिका रंग और कैनवेस
सौवें आसमान से उतर कर तुम आना मक़बूल
जाकर कहना मंदिर में विट्ठल से
जो न होता मक़बूल फ़िदा हुसेन
तो कौन भरता विट्ठल में रंग