ब्रह्मांड की अंतर्यात्रा / रूचि भल्ला
रात के बारह का वक्त है
तापमान 28 डिग्री है
फलटन के आसमान में एक टुकड़ा चाँद है
चाँद एकदम तन्हा है
मैंने आसमान के सारे तारे बटोर लिए हैं
एक-एक तारे को जोड़ कर
मैं रास्ता माप रही हूँ
मुझे बनानी है लंबी एक सड़क
जो जाती है इलाहाबाद तक
पर उससे पहले
मुझे बीच रास्ते में ठहरना है
रुकना है दिल्ली
वहाँ रोता हुआ एक बच्चा है
जिसकी माँ खो गई है
वह बच्चा मेरे सपनों में आता है
यह वही बच्चा है
जिसके रोने की आवाज़ सुन कर
निदा फ़ाज़ली ने कहा है
घर से मस्जिद है बहुत दूर
चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए
मुझे उसे हँसाना है
देखना है उसे हँसते हुए
जैसे मुकद्दर का सिकंदर में
अपनी तकदीर पर हँसता है एक बच्चा
खिलखिलाता है जोर-जोर से
ईश्वर की करामात पर
और हँसते-हँसते बन जाता है
सिकन्दर.........
मुझे उस बच्चे को सिकन्दर पुकारना है
देखना है उसे दुनिया को फ़तह करते हुए
पुकारना है उसे कह कर
एलेक्जेंडर द ग्रेट
इससे पहले कि वह बच्चा ओझल हो जाए
गुम जाए दिल्ली की गलियों में
इससे पहले कि बच्चा चाँद को
निचोड़ कर फेंक दे दिल्ली की नालियों में
इससे पहले कि चाँद पर चढ़ जाए फफूँद
मुझे बचाना है चाँद को बताशे की तरह
देखना है बच्चे को चाँद का बताशा
कुतरते हुए
देखनी है तब उसके उजले दाँतों की हँसी
सुना है उस बच्चे के मुँह में दिखता है ब्रह्मांड
वह बच्चा रात की तन्हाई में बाँसुरी बजाता है
घूमता रहता है दिन भर दिल्ली की सड़कों पर
मुझे उस बच्चे से प्यार हुआ जाता है
मैं यह बात लिख रही हूँ
सूरज को साक्षी मान कर
इस वक्त फलटन का तापमान 15 डिग्री है
मेरा बुखार उतर रहा है