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दो और दो चार नहीं होते / छवि निगम

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(एक)

जी हाँ
ठीक कहा
कष्टकारी तो है
शांत रहना
खौलते लहू पर छींटे मारना
बदले की न सोचना
न पलटवार करना
बहादुर बन/बस प्रेम को जीना
जवाब तक न देना
जी बवाल ही है अहिंसा
सत्याग्रह को जीना
सचमुच बड़ा ही मुश्किल
मुश्किल तो
पर असम्भव नहीं...
सनद रहे।

   ( दो)

जब उकता जाते हैं हम राज्य से
तब सुनते हैं
कभी लिखी एक बतकही
था तो जरूर ही एक
मनु एडम या आदम
उसकी पसली से शायद जन्म गयी होगी
उसकी साथी
इड़ा ईव या हौआ
पुरुष का होना वास्तविकता और स्त्री एक संयोग
चाह रही होगी
परिवार की समाज की
राज्य बन गया होगा
तो ऐसे हम तक आया राज्य।
लेकिन
क्या यही चाह थी हमारी भी?
तो फिर
क्यों लौटते हैं हम बारम्बार
असभ्यता में
आदिमानव बनकर?

            (तीन)

युग की पुकार थी
साम्यवादी ललकार थी
शक्तिशाली दौलतमंद
दीन सर्वहारा थे
और मध्य में
चौड़ी खाई पाटी गयी
रक्त से लाल नदी पर
ढहे कुछ पुल
और लो फिर
आ गयी समानता।
आ गयी समानता?
लेकिन क्यों फिर
गूंजते वाद
घुटते विवाद अभी भी
क्यों
झड़ते कगार अभी भी?
निर्वात में
फलता फूलता
घुटता मध्यवर्ग !

   (चार)

अहा प्रजातन्त्र!
सब समान
सभी स्वतन्त्र
बहुमत का प्यारा शासन
झुनझुना
सपना सुंदर
पर क्या सचमुच?
क्यों दिखते यहां केवल कुछ
अधिक समान
केवल कुछ जो थोड़े ज्यादा स्वतन्त्र..
सुनो अरस्तू!
यहां सच में केवल विराजता केवल तुम्हारा कहा
भीड़तंत्र।