तारीखें / सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
कई बार
मैं भूल जाती हूँ तारीखें
पर याद रहते हैं दिन
तब तारीख का हिसाब
कैलेंडर देखकर लगाया जाता है
अचानक इतने दिन कैसे गुज़र गए
सोचकर मन झल्लाता है
तारीखों से वास्ता
पहली बार पड़ा था
नर्सरी क्लास में
जब सिखाया था टीचर ने
सी.डब्ल्यू .और एच.डब्ल्यू . के ठीक नीचे
तारीख डालना
तब से घूमता रहा जीवन
तारीखों के इर्द-गिर्द
जैसे पृथ्वी है घूमती
सूर्य के चारों ओर अनिवार्यतः
यूँ भी औरतों की ज़िंदगी में
तारीखों के मायने बहुत होते हैं
रखना होता है तारीख का हिसाब –
हर माह के उन तकलीफ़देह दिनों की तारीख
जब बढा दी जाती है उनकी और तकलीफ़ें
धर्म-कर्म के नाम पर
या संतान-प्राप्ति के सुख की ‘ एक्सपेक्टेड ’तारीख
जब होती है सन्तावन डेल * के असहनीय दर्द के ऊपर
ममत्व और प्यार की अनोखी जीत
इसके इतर बच्चे के टीकाकरण से लेकर
स्कूल के नामांकन और फीस भरने की तारीखें भी
पता नहीं कैसे याद रखती है मेरी बूढ़ी माँ
परिवार और देश-दुनिया की हर घटना की तारीख
बचपन में हम सब भाई-बहन
कहा करते थे हँस कर-
‘आपने काॅलेज में हिस्ट्री क्यों नहीं रखा माँ’
माँ हौले से मुस्कुरा देती थी
जैसे यह सब उनके बाएं हाथ का खेल था
पर मुझे यह सब जादू लगता था कोई
ओह, दरवाज़े की घंटी किसी ने है बजाई
लगता है दूधवाला आया है भाई
उसका भी करना है हिसाब
फिर करनी हैं कई तारीखें याद
आज बिजली का बिल जमा करने की भी है आखिरी तारीख
प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए
देश और दुनिया की कई तारीखें
रचनी होती थीं कभी तोता बनकर
पर आज नहीं रख पाती
जीवन की आपाधापी में
ज़रूरी घरेलू तारीखों को याद!
- डेल-दर्द मापने की इकाई