भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाने कैसे सपनों में खो गई अखियाँ / शैलेन्द्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:27, 16 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatFilm...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जाने कैसे सपनों में खो गई अँखियाँ ।
मैं तो हूँ जागी मोरी सो गई अँखियां ।
अजब दीवानी भई मो से अनजानी भई,
पल में पराई देखो हो गई अँखियाँ।
मैं तो हूँ जागी मोरी सो गई अँखियाँ।
बरसी ये कैसी धारा काँपे तन-मन सारा,
रंग से अंग भिगो गई अँखियाँ।
मैं तो हूँ जागी मोरी सो गई अँखियाँ।
मन उजियारा छाया जग उजियारा छाया,
जगमग दीप संजो गई अँखियाँ।
मैं तो हूँ जागी मोरी सो गई अँखियाँ।