मेनोपॉज / निरुपमा सिन्हा
परिवर्तन के
इस दौर में
लड़ती है वो
उम्र और ख़ुद के बीच
हो रहे निरंतर बदलाव से!
डर जाती है
खत्म होने को है
सब कुछ
उसका
रूप
यौवन
और कोमलता!
हर माह!
कष्ट के बावजूद
उसे एहसास होता था
कि
है स्त्री वह!
बात बात में
हो जाती है वो रुआँसी
आँखों से बहते हैं
अनायस ही आँसू
उस सतत प्रक्रिया के
विरोध में!
झुँझलाती है
उलझ जाती है
अपने आने वाले
दिनों की पीड़ा से!
उठती है
गिरती है
और
चलती पड़ती है
तेज़ी से
बिफर पड़ती है
उन लोगों पर
जिनका इनसे सरोकार न था
ज़िम्मेदारियों के बोझ को भी
इसी पड़ाव के
इर्द गिर्द ठहरे रहना होता है..
काम की अधिकता का
भार समझ ?
सब उड़ा देते हैं मज़ाक़ में
उसका चिड़चिड़ा होना!
मानसिक कष्ट के
इस दौर में
वह अकेली थी
नितांत अकेली
क्यूँकि.... मोनोपॉज़!
कोई रोग नहीं है
जिसके लिए संवेदनाएँ इकठ्ठा की जाएँ!!