व्यथा, अन्धकार की / त्रिभवन कौल
रात्रि का अन्धकार
मूक, बधिर, उपेक्षित
जीवन के आधारभूत मूल्यों को टटोलता
इंसानो के अंतर्मन को समझने के कोशिश करता
आँखे फाड़े, गहन वेदना के साथ
सन्नाटे को साथ लिए
करता है फ़रियाद, विधाता से,
"कि रात्रि के आँचल में क्यूँ रखा उसका वास?
क्यूँ खामोशी उसकी प्रकृति को आयी रास?
क्यूँ अमानवीय कर्मो का घटित होना
नहीं होता उसको भास?
क्यूँ रात्रि उसकी सहभागी बन
झेलती है इतना त्रास?
फलते-फूलते षड्यंत्रों का वह
चश्मदीद गवाह
अपने ही घर में
आस्तीन के सांपों को पालता
वीभत्स, निंदनीय,घृणित क्रियाओं का
सी सी टी वी के समान
अपने अंतरात्मा पर चित्रित करता
थक गया हूँ, हे भाग्यविधाता
कब समाप्त होगा यह संताप
कब मुक्ति मिलेगी इस त्रासदी से
अन्धकार को रात्रि से, रात्रि को अन्धकार से"
शायद कभी नहीं
नियति निश्चित है
अन्धकार और रात्रि
सहगामी हैं,पूरक हैं, हमसफ़र हैं
चिरकाल तक, सम्पूर्ण प्रलय तकI