भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आती है ललाई चेहरे पर / त्रिभवन कौल
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:29, 26 जनवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिभवन कौल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आती है ललाई चेहरे पर
जब देख मुझे मुस्काती हो
दिल में होल सा उठता है
जब हंस कर तुम लज्जाती हो
ऑंखें तुम्हारी कजरारी सी
ज़ुल्फ़ों में छिप छिप जाती है
बादल हो या न हो, समां में
बिजली चमक सी जाती है
पलकों को गिरा दो शर्मा कर
घनघोर अँधेरा हो जाए
ज़ुल्फ़ों को उठा दो मुखड़े से
बरबस उजाला हो जाए
लाल गुलाबी होंठ तुम्हारे
कमलनाल से हाथ
उर्वशी और मेनका ने देखो
खायी है तुमसे मात
किस कुम्हार की पूजा हो तुम?
क्यूँकर उसने तुम्हे बनाया?
पूजा के पुष्प किसको चढ़ाऊँ
‘उसको’ या जिसकी यह काया