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महुए की गंध / सच्चिदानंद प्रेमी

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भौरों के पंख खुले थिरकी सुगंध!
आ रही भीनी सी महुए की गंध!
धानी रंग गेहुओं की-
        झूम रही बाली,
रक्त प्रभा फूल संग-
            झूमे वनाली;
संयम के मुखर हुए आज निर्बन्ध!
आ रही भीनी सी महुए की गंध!
मस्ती में कोयल ने-
          छेड़ी जो तान,
गूंज गए पंचम में,
          खेत-खलियान ;
नगर-डगर आँगन-घर सब हैं स्वछंद!
आ रही भीनी सी महुए की गंध!
दर्पण सी दमक रही-
       मुखड़े की लाली,
ऊमर त्योहार बनी-
        पर्व कृष्ण-काली;
लूट लिए मधुपों ने यौवन-मरंद!
आ रही भीनी सी महुए की गंध!