मौसम गीतों का तब आता / सच्चिदानंद प्रेमी
जब पड़ती है मार तपन की-
मौसम गीतों का तब आता ;
स्वर दादुर-पिक- मोर-पपीहा-
के कंठों में सधकर छाता,
तपन पुष्प-कलि वह अभिलाषा
जो वृंत पर खड़ी मुरझाई ;
तपन कंटकाकीर्ण क्रोड़ में
मादकता रंगीन लुटाई ;
तपन वाग बीच बीथिका में
पटल पनस रसाल की डाली-
पर बैठी मधु मादक पीती-
कूक न पाई कोयल काली
तपन कीच में जल को छल कर-
सुन्दर-गन्धित फूल खिलाता,
तपन पाटली के सुकंठ से
थकित पथिक को गीत सुनाता;
तपन कोलाहल बाली संसद-
की गलियारों में जब छाता
सध,देश के जन-मानस को-
नारा बन धोखा दे जाता ;
तपन द्वेषागार है बनता
जब नेता की जीत ना होती
तपन विरोधी रोष बढ़ाता
लाल किले पर हों जब मोदी
तपन अमेरिका के बराक को
स्वागत करना है सिखलाता,
वीजा पर खंजर डाले-को
घर लाकर मेहमान बनाता,
तपन कुढाता भावुक मन को
प्रेमी का दर होता खाली,
तपन खिझाता तब कवियों को
जब श्रोता नहीं देते ताली।
तपन उडाता नींद प्रिया की
अनचाही सौतन का कन्धा,
तपन गलाता देह प्रिय की
अनचाहे गोरस का धंधा।
तपन तपस्वी के दिल धंसकर-
आदिकवि का गीत उठाता,
तपन मदन-क्रीड़ा-पीड़ा में-
क्रौंच-बेध की क्रांति जगाता;
तपन ताड़का नारी हन्ता-
को पुरुषोतम राम बनाता,
तपन कल्पना दसकंधर की
कनक नगर में राख उड़ाता।
खर-श्रृंगाल-श्वान मुख ऊपर
कर, अनहद के राग उठाते,
तपन अपावन सुर-असुरों को
रस-बस कर नित भय उपजाते;
तपन ह्रदय की वो चिनगारी
जिसके द्वेषाधीन है दुनिया,
तपन तोड़ मर्यादा-संयम
धुनता जैसे रूआ धुनिया;
तपन प्रेमाधीन जगत के-
प्राणों में बसकर गाता है,
स्वर दादुर पिक मोर पपीहा
के कंठों मे सध छाता है।