हे विहंगिनी / भाग 3 / कुमुद बंसल
21
सुनहरी औ'
पीली चादर ओढ़
सूरज ढला,
संध्या भई सिन्दूरी,
इच्छा नहीं अधूरी।
22
दिवाकर की
तमहर आभा को
तम ने ढाँपा,
पृथ्वी सूर्य-पोषित
हुई अति क्रोधित।
23
रवि-किरणें
संध्या के आगोश में,
हैं पक्षी शाख,
नौकाएँ तट लौटीं,
चमकें तारे कोटि।
24
हिनहिनाना,
हुआ सूर्य-अश्व बन्द,
प्रकाश-काठी
उतरी, रात्रि आई
लिये तिमिर-गन्ध।
25
तम भागता,
सूर्य घात लगाता
कोमलता से,
आशा नभ छू आई,
नवभोर है भाई!
26
पारद-रंग,
सूर्य ढल गया।
सपने बाँटे
आँखों को सुधाकर,
मदमस्त होकर।
27
विहग गाते
रवि कीर्ति-गायन,
तारें हैं काँपे,
निशा अनुचरी-सी
छिपी है मुख ढाँपे।
28
हवाएँ बहीं,
बादल उड़ गये,
सूर्य प्रकटे
चमकता गगन
उज्ज्वल हुआ मन।
29
वृक्ष-ओट से
निकला शिशु-रवि
प्यारी-सी छवि,
झाँकता नीलकण्ठ,
हँसता मंद-मंद।
30
श्रमजल से
भीगी सूर्य-किरणें
माँग रहीं हैं
बिछौना परिमल,
और स्वप्न चंचल।