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हे विहंगिनी / भाग 4 / कुमुद बंसल

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31
खुला गगन,
नदी की शीतलता,
उगता सूर्य,
रश्मि का झीना जाल
ठगता हर काल।

32
कजरारा-सा
रिमझिम संकेत,
बूँदों की पाती,
तडित-कम्पित हो
जब बरसे मेघ।

33
सागर-जल
कितना भी हो खारा,
बादल पीता,
बनाके शरबती
है धरा बरसाता।

34
बरस रहे
बन राग मधुर
पावन-घन,
धरा का कण-कण,
पाये प्राण-स्पन्दन।

35
कैसा संदेश
दे रही हैं घटा-घन,
श्यामल तन?
दमकती विद्युत
सपने बन बन।

36
नभ ही मेरा
माणिक, हीरे, मोती
नीलम-घन,
हर बूँद सींचती
मेरे सलोने स्वप्न।

37
छाया उन्माद
गूँजे घोर निनाद,
गरजे मेघ
भर-भर हुंकार,
घनघोर अपार।

38
हैं नेह-श्वास
मेघ के उच्छवास,
बरसे धार
शृंगारमय सार,
दिव्य हुआ संसार।

39
तारों की पीड़ा,
विद्युत् का मिटना,
नभ न जाने,
शूल-उर की पी-पी
उपवन न जाने।

40
सावन-घन
लाये नव संदेश,
धरा चहकी
पहन हरी चुनरी,
लगा खुश्बू महकी।