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ठेके का टेण्डर / कविता भट्ट
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मदमस्त हो रही हैं धीरे-धीरे पहाड़ियाँ,
जीवन को विदा कह रही हैं जवानियाँ।
कल ही तोड़े थे शीशे ठेके के उसकी माँ ने,
नारे लगाये, लगवाया बाहर से ताला, बुआ ने ।
अब भी नहीं कर पाया वह मनन,
किसने की विषैली यहाँ की पवन?
चार किताबें हाथों में लिए कॉपी और एक पेन,
भेजा था बेटे को स्कूल और पढाया था ट्यूशन।
कुशासन ने उसको रोटी नहीं कई बरस दी,
कड़वे घूँट, कई बोतलें व्हिस्की की परस दी।
अबके रोया था वह माँ की गोदी में बिलखकर,
क्या उसमें खूबी नहीं रोटी खाने की कमाकर?
आज सोया है चिरनिद्रा में थककर,
न उठेगा न माँगेगा रोटी कभी फिर।
बैठी मन में जो ठेका बन्द करना, ठानकर
चकित थी माँ उसकी आज यह जानकर,
जिस सखी ने उठाया था ठेके पर पत्थर,
उसी के नाम खुला है अबके ठेके का टेण्डर।