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भूखा शिशु हिमाला / कविता भट्ट

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सिंहासन के कड़वे सच के-
धरातल पर पथरीले,
सरकता, भूखा शिशु हिमाला,
घुटने लहूलुहान छिले।
प्रजातन्त्र राजाओं के
फर्श पर फिसलता हुआ,
ठोकरें खाता, गिरता
कभी- सम्भलता हुआ।
थककर, रुककर कभी
भूख से मचलता हुआ,
उच्छ्ववासें कभी और
कराहता सिसकता हुआ।
चुपड़ी न मिले सूखी ही सही,
भूख मेरी मिट ले,
दूध पीकर, शैशव हो-
सुपोषित, झटपट खिले।
काँपती हुई विवश
हथेलियों को फैलाकर,
माँगता एक टुकड़ा
रोटी का सकुचाकर।
व्यथित, व्यग्र और
क्रन्दित दृष्टि उठाकर,
छलावे-भरे घोषणापत्रों
को साक्षी बनाकर।
कुछ दिन ही तो बीते,
अभी क्या वो भूले?
या चाहते नहीं रखना
याद, पन्ने सपनीले ।
सपना तो भोर का था
और लोग हैं कहते,
भोर के सपने तो हैं-
सच में सच होते।
तो फिर सपनों का
क्या इस शिशु के?
क्या दोष इसी का है,
क्यों देखे सपने?
या उनका- जिन्होंने
बनाए झूठे काफिले,
जिनके सिंहासन जड़े
मोती, माला-फूल खिले!
गरजदार हुई थी बरसात,
चुनावों के बाद अबके,
वायदों के कागज,
आपदा में-चीथड़ें बन बह गए ।
जो बचे थे बहाव से,
दब गए - बर्फ के भार तले,
चलो अच्छा ............ठंडे पड़े
और कुछ गल गए ।
सिंहासन बैठे दानव,
शिशु-रुदन पर हँसते ही रहे
आश्वासन-दुत्कारों में
शिशु-सपने फँसते ही रहे।
अरे मूर्ख! तुम्हारी जिस
रोटी का था बहाना
उसे तुम्हारे लिए नहीं
अपने लिए था सजाना।
क्या तुम्हें इसीलिए
जन्मा ओ शिशु हिमाला।
तुम रोटी माँगो, नहीं
अब मत यह दोहराना।
हम तेरे सपनों के सौदागर,
सपनों का सौदा करते,
तो फिर हो अकारण ही.........
हमसे क्यों हठ करते?
अब हैं कहते-
घोषणाओं के झोले वाले,
मेरी चाँदी की-
चौखट से जाओ चले।
सपने मत देखना
अब, कभी तुम रंगीले,
चुपड़ी खा गए हम,
तेरे पथ कंकरीले।
तू भटक आधी खुदी हुई
सड़कों पर या फिर,
पटक- चीखते हुए-
मेरी चौखट पर अपना सिर।
तुझे रोटी- चुपड़ी क्या-
सूखी भी न मिलेगी,
चुनाव की लोरी और,
कुछ घूँट रम ही चलेगी।
सुनता रह, आँखें मूँदे,
एक-दो चम्मच पी ले।
तुझे हम जितना कहते हैं,
उतनी साँसें जी ले।
सपनों में नहीं यथार्थ में,
फिर आज रात को सो जाओ,
खो जाओ तुम......खो जाओ
चिरनिद्रा में सो जाओ।
खो जाओ तुम......खो जाओ
चिरनिद्रा में सो जाओ।