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बोलने छन्द लगेंगे / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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माँ पतझार-वसन्त में आतप में बरसात में है छवि आपकी
चाँदनी रात में मन्थरवात में साँझ-प्रभात में है छवि आपकी
देख रहा सब ठौर मैं पाटल में जलजात में है छवि आपकी
अम्ब! कवित्व की वाटिका में उभरी हर पात में है छवि आपकी।

गाँऊ सदा गुन आपके ही, किसी और के गाऊँ न गाऊँ कभी
द्वार यही रहे रैन-बसेरा, सदा कहीं जाऊँ न जाऊँ कभी
भक्ति अखंड रहे भले दूसरे काम में आऊँ न आऊँ कभी
पाऊँ मैं! प्यार दुलार माँ! आपका अन्य का पाऊँ कभी।

सींच सुधामय स्नेह से, कल्पना- की लतिका का विकास तो कीजिए
छू न सकेगा कभी तम जीवन में कुछ ज्ञान प्रकाश तो कीजिए
झंकृति होगी कवित्व की किन्नरी काक रवों का विनाश तो कीजिए
बोलने छंद लगेंगे सजीव हो, मेरे हिये में निवास तो कीजिए।

पूर्णिमा की है कहीं चन्द्रिका कहीं जेठ की धूप ने डाले हैं डेरे
साँझ ने शान्ति के पाठ पढ़े जपते नव जागृति मन्त्र सवेरे
वारिधि, व्योम, धरा, हिमवन्त, नदी तरुपल्लव रूप घनेरे
अम्ब! मुझे जड़ जंगम विश्व में दीख रहे सब बिम्ब ये तेरे।

ऐसा फँसा जग के महाजाल में वन्दना गीत भी गा न सका
घोर घृणा ही जलाती रही कभी निश्छल प्यार लुटा न सका
यों बना माया समुद्र की मीन मैं शान्ति की ओर हूँ जा सका
जीवन मेरा निरर्थक माँ! यदि स्नेह मैं आपका पा सका।

स्नेह रहे तुझसे मिलता सदा कष्ट भले ही हजार दे शारदे!
टूटी कवित्व की किन्नरी है अपने कर तार सँवार दे शारदे!
जीवन से पतझार मिटाकर पूर्ण वसन्त बहार दे शारदे!
राष्ट्र पुकार रहा तुझको मझधार से पार उतार दे शारदे!

जीवन ये रहे स्वार्थ से मुक्त यही वर पाऊँ सरस्वती माँ!
संस्कृति और स्वसभ्यता के सदा गीत मैं गाऊँ सरस्वती माँ!
दे अनपायनी भक्ति मुझे चरणांबुज ध्याऊँ सरस्वती माँ!
सार सहेज सकूँ सुख का रस-सिद्ध हो जाऊँ सरस्वती माँ!

रक्षित ऐक्य स्वतन्त्रता राष्ट्र की हो जिनसे तरुणाई दे माँ!
दे हटा शूल बबूल तू जीवन के पथ में अमराइयाँ दे माँ!
जो महके सदा पाटलों-सी हँसती हुई वे अँगनाइयाँ दे माँ!
ज्ञान की उच्चता दे हिमवन्त-सी वरिधि-सी गहराइयाँ दे माँ!

जीवन गंग-तरंग समान दे उज्ज्वलता शुचि नीर-सीदे माँ!
पापियों के बढ़े वंश हैं राष्ट्र में शक्ति मुझे महावीर-सी दे माँ!
बिम्ब प्रभात से हों प्रभास्नात कला कविता कश्मीर सी दे माँ!
सूर की भक्ति पदों में भरूँ मुझे साखी बना तू कबीर-सी दे माँ!

जीता रहा पतझार में ही अब तो मधुमास को टेर दे माँ!
शुष्क अतृप्त पड़ी रसनो पर छन्द-सुधा-घन घेर दे माँ!
सूना पड़ा उर अन्तर है नव काव्य के भाव उकेर दे माँ!
अर्थ समर्थ दे भाव भरे मुझको भले देर सवेर दे माँ!

जीवन-वारिधि में उठा ज्वार असम्भव है इसमें रुक पाना
लक्ष्य अलक्ष्य हुआ अपना अब देखो कहाँ मिले द्वीप अजाना
नाव अधीन हुई लहरों के न जाने कहाँ अपना हो ठिकाना
छूट गया पतवार कहीं यदि हो सके तो भगवान! बचाना।