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बरसो फिर मेघ! / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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बरसो फिर मेघ! हरो जगती के ताप रे!

कलियों की फूलों की सुन्दरता क्षीण हुई
आतप आतंक देख मौन पिकी वीण हुई
चन्दन की शीतल आज कहीं मौन हुई
आग भरे अंग-अंग तप्त मन्द पौन हुई
धधक उठा धरती का उर-अन्तर आप रे

दहक उठी सूख रहे पादपों की छाँव है
आवा-सा आज हुआ नीम वाला गाँव है
अपना ही नीर कुएँ पीकर भी प्यासे हैं
नदियों के तीर दीन-हीन हैं उदासे हैं
सबके मन-मन्दिर में चले यही जाप रे!

बसी हुई चिनगारी धरती के अंग-अंग
जीवन में जीवन सा स्वेद बह रहा अभंग
आ गया निदाध बाघ श्वास तप्त हुई
जीवन की फुलबगिया मानो अभिशप्त हुई
नाच रहा सिर पर है आतप का शाप रे!

पंखा है कूलर है ए.सी. है चैन नहीं
जीवन है जीवन में जीवन दिन रैन नहीं
अंग-अंग देह यष्टि हाय! गली जाती है
कारे-कारे पोर-पोर प्रकृति जली जाती है
गरमी है गरमी है गरमी है बाप रे!