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छाँव / मृदुला शुक्ला

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छाँव कहाँ होती है
अकेली खुद में कुछ
ये तो पेड़ों पर पत्तियों का
दीवारों पर छत का
वजूद भर है

पतझड़ में पेड़ों से नहीं झरती
महज पीली पत्तियां भर
कतरा कतरा करके
गिरती है पेड़ों की छाँव भी

बदलते मौसम के साथ
लौटती नहीं
केवल पत्तियां भर
लौट आते हैं परिंदों के घोसले
ठिठकते हैं
मुसाफिरों के कदम भी

ठूंठ हुए पेड़ों के नीचे से
छाँव जा दुबकती है
पेड़ों के खोखले कोटरों में
इंतज़ार करती है रुकने का
बर्फीले तूफानों के
सेती हुई साँपों के अंडे

छाँव और धुप के बीच
हमेशा तैनात होती है
मरन गुलाबी कोपलें पूरी मुस्तैदी के साथ|