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बेटे के लिए / मृदुला शुक्ला

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थामे हुए एक शिशु की ऊँगली
चलते हुए लम्बी यात्रा में
कब अचानक उँगलियों और हथेलियों ने अदला बदली की
पता ही नहीं चला
जो नन्ही उंगलिया जो मेरी हथेलियों में थी
वे अब भीड़-भाड़ भरे रास्ते पर कसमसा जाती है
आतुर हो जाती हैं बेचैनी से अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए
एक ऐसी ही किसी सड़क से गुजरते हुए किसी तेज वाहन के पास
वो हथेलियाँ झटके सी खींचती हैं मुझे अपनी ओर
इस चेतावनी के साथ "संभल कर चला करो माँ "
बल और पौरुष के प्रति उसका बढ़ता आग्रह
डराता है मुझे
मगर अपनी प्रार्थना में ,उसे दिये आशीषों में
चिरायु होने के साथ बल और पौरुष की कामना
हर बार करता है में मन को वो हिस्सा
जो अक्सर अनसुना करता रहता है मुझे
ठण्ड की ठिठुरती रातों में उसके कुनमुना के जागने पर
मैं यंत्रचालित से बदल देती थी उसका गीला बिछौना
अथवा खोल देती थी अपने अन्तःवस्त्र का हुक
उसकी क्षुधा तृप्ति के लिए
गहरी नींद में होते हुए भी शायद ही कभी चूक हुई हो मुझे
समझने में उसकी जरूरतें
बिना किसी भाषा के बिना किसी संवाद के
आज भाषा और संवाद का एक सेतु है हमारे बीच
मगर इन दिनों अक्सर खड़े होते हैं हम
दो अलग अलग सिरों पर
उसे खेलते देखती हूँ देर तक उसकी सहपाठिनो के साथ
वो अक्सर भरा होता है गहरे अवज्ञा भाव से
श्रेष्ठता की ग्रंथि छुपाते छुपाते भी झांक जाती है
उसकी तरल आँखों से
वो उन्हें कनखियों से देख मुस्कुराता है
लुभावने लाल हो जाते है उसके गाल .
मैं बांचना चाहती हूँ उसका मन, नापना चाहती हूँ
उसकी महीन रक्त नलिकाओं में बढ़ते टेस्टोस्टेरोन के असर को
मैं पुनः पुनः पढ़ती हूँ फ्रायड को दुबारा से पढ़ती हूँ
इंडोक्रायनोलोजी की किताबों की खंगालती हूँ दुबारा से
भांपना चाहती हूँ उसकी देह और मन में चल रही खदबदाहट को
मैं सिद्ध कर उसके मन को मन्त्र सा
भेदना चाहती हूँ पित्रसत्ता का दुर्गम व्यूह
कूट भाषा में लिखा यह मन्त्र मेरे लिए अपठनीय है
मैं शून्य में भटक जाती हूँ
स्मृति भ्रंश के किसी गंभीर रोगी सी
पेंडुलम सी हो जाती है
पितृ सत्ता के विरुद्ध जमकर खड़ी स्त्री

जब उसकी उंगली छुड़ा किशोर होने लगता है एक नन्हा शिशु