Last modified on 7 फ़रवरी 2018, at 16:33

बडमावस / मृदुला शुक्ला

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:33, 7 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुला शुक्ला |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कामना के धागे कोरे थे
और कच्चे भी
पियरा उठे चुटकी भर हल्दी से
यूं ही नहीं लपेटे गए थे
गिन कर पूरे एक सौ आठ बार

मन्नतों की मौली
कितनी रंगो भरी थी
लटकते हुए बूढ़े बरगद की दाढ़ी में
वर्षों तक
धूप छांव जाते
उसने सौंप दिए थे मौसमों को रंग सारे

मोहल्ले के मुहाने पर वह जो बूढ़ा बरगद है न
अमावस की रात
मन्नतों का मेला लगता है वहां
मौली और कच्चे सूत को तिहरा कर
बांधी गयी गांठों से
बाहर निकल आती हैं मनौतियाँ
बंधे बंधे
दम घुटता है उनका भी

बरगद अचरज भरी आंखों से देखता है
वे एक ही चेहरे-मोहरे, रंग आकार की हैं
अब भला उसे कैसे पता चलेगा
कि कौन सी मन्नत किसकी है....

मन्नतें झांकती हुई एक दूसरे की आंखों में
करती हैं सामुहिक विलाप
अपनी खो गई पहचान के लिए

मगर स्त्रियां हैं
कि अगले वर्ष जेठ की अमावस को
फ़िर बांध आती हैं
अनगिनित अधूरी कामनाओं के धागे