भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सीमा प्रहरी 'पहाड़' / मृदुला शुक्ला

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:43, 7 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुला शुक्ला |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब नहीं छिड़ी होती जंग सरहदों पर
तब भी तो जूझते रहते हो तुम
लड़ते रहते हो अनेको जंग भीतर और बाहर
जब पड़ रही होती है बाहर भयानक बर्फ
सीने में धधकता सा रहता है कुछ

और रेत के बवंडरों में मन में उमड़ घुमड़
बरसता सा रहता है कुछ
जाने कैसे निभाते हो कई- कई मौसम एक साथ....

विषम परिस्थतियों में सरहदों रह रहे रणबांकुरों को सादर समर्पित...
पहाड़
तुम्हारे घर जैसे मकान के पीछे
दूर पहाड़ों के पीछे जो बर्फ गिरी है
वो अब तक ठंडी महकती खूबसूरती
का भ्रम थी मेरे लिए

उसे देख कविता के बीज पड़ते थे मेरे भीतर
उसके सन्नाटे मेरे भीतर बजते थे
अनहद नाद की तरह
तब बर्फ का मतलब मेरे लिए
शुचिता पवित्रता अनछुआ भोलापन था
ओह...
आज देखी मैंने उसके भीतर धधकती
कुछ सीमा प्रहरियों के अकेलेपन की आग
अचानक देखा दूर पहाड़ों पर उठता धुंआ
और उसमे डूबती तुम्हारी
बोझिल शाम और अकेली उदास रात
उस आग मैं झुलसते देखी
तमाम छोटी बड़ी ख्वाहिशें
तुम्हारी खुद की
और तुम्हारे अपनों
लेकिन तुम्हे जलाए रखनी होगी ये आग
क्यूंकि इस आग मैं पकते है
एक मुल्क की मीठी नींद के सपने...