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उलझे मिले- / ज्योत्स्ना शर्मा
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81
देखे, सँजोए
तार-तार सपने
बेचैन घर।
82
रिसते जख्म
पर्त-पर्त उघड़े
सिसका घर।
83
महका घर
आने की आहट से,
तेरे इधर!
84
बैरन वर्षा
ले गई सारे रंग
बेरंग घर।
85
थके नयन
जोहे बाट किसकी
ये खण्डहर।
86
होने न दूँगी
नीलाम, सपनों का-
ये प्यारा घर!
87
रस्मों के गाँव
उलझ गए मेरे
भावों के पाँव।
88
उलझे मिले-
लालच की चादर
रिश्तों के तार।
89
किरन सखी
खोले है उलझन
नन्ही कली की।
90
प्रेम की डोर
उलझा मन, जाए-
तेरी ही ओर!