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एक थिरकती आस की अंतिम अरदास / वंदना गुप्ता

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जो पंछी अठखेलियाँ किया करता था कभी
मुझमें रिदम भरा करता था जो कभी
बिना संगीत के नृत्य किया करता था कभी
वो मोहब्बत का पंछी आज धराशायी पड़ा है
जानते हो क्यों?
क्योंकि तुम नहीं हो आस पास मेरे

अरे नहीं नहीं ये मत सोचना
कि शरीरों की मोहताज रही है हमारी मोहब्बत
ना ना मोहब्बत की भी कुछ रस्में हुआ करती हैं
उनमे से एक रस्म ये भी है क़ि तुम हो आस पास मेरे
मेरे ख्यालों में, मेरी सोच में, मेरी साँसों में
ताकि खुद को जिंदा देख सकूं मैं

मगर तुम अब कहीं नहीं रहे
ना सोच में, ना ख्याल में, ना साँसों के रिदम में
मृतप्राय देह होती तो मिटटी समेट भी ली जाती
मगर यहाँ तो हर स्पंदन की जो आखिरी उम्मीद थी
वो भी जाती रहीतुम्हारे न होने के अहसास भर से

और अब ये जो मेरी रूह का जर्जर पिंजर है ना
इसकी मिटटी में अब नहीं उगती मोहब्बत की फसल
जिसमे कभी देवदार जिंदा रहा करते थे
जिसमे कभी रजनीगंधा महका करते थे
यूं ही नहीं दरवेशों ने सजदा किया था
यूं ही नहीं फकीरों ने कलमा पढ़ा था
यूं ही नहीं कोई औलिया किसी दरगाह पर झुका था
कुछ तो था ना क़ुछ तो जरूर था
जो हमारे बीच से मिट गया
और मैं अहिल्या सी शापित शिखा बन
आस के चौबारे पर उम्र दर उम्र टहलती ही रही

शायद कोई आसमानी फ़रिश्ता
एक टुकड़ा मेरी किस्मत का लाकर फिर से
गुलाब सा मेरे हाथों में रखे
और मैं मांग लूं उसमे खुदा से तुम्हें
और हो जाए कुछ इस तरह सजदा उसके दरबार में
झुका दूँ सिर कुछ इस तरह कि फिर कहीं झुकाने की तलब न रहे

उफ़ कितना कुछ कह गयी ना
ये सोच के बेलगाम पंछी भी कितने मदमस्त होते हैं ना
हाल-ए -दिल बयाँ करने में ज़रा भी गुरेज नहीं करते
क्या ये भी मोहब्बत की ही कोई अनगढ़ी अनकही तस्वीर है जानाँ
जिसमे विरह के वृक्ष पर ही मोहब्बत का फूल खिला करता है
या ये है मेरी दीवानगी जिसमे
खुद को मिटाने की कोई हसरत फन उठाये डंसती रहती है
और मोहब्बत हर बार दंश पर दंश सहकर भी जिंदा रहती है

तुम्हारे होने ना होने के अहसास के बीच के अंतराल में
एक नैया मैंने भी उतारी है सागर में
देखें…उस पार पहुँचने पर तुम मिलोगे या नहीं
बढाओगे या नहीं अपना हाथ मुझे अपने अंक में समेटने के लिए
मुझमे मुझे जिंदा रखने के लिए
क्योंकि जानते हो तुम
तुम, तुम्हारे होने का अहसास भर ही जिंदा रख सकते हैं मुझमे मुझे

क्या मुमकिन है धराशायी सिपाही का युद्ध जीतना बिना हथियारों के
क्योंकि
उम्र के हर पड़ाव पर नहीं उमगती उमंगों की लहरें
मगर मोहब्बत के बीज जरूर किसी मिटटी में बुवे होते हैं

(एक थिरकती आस की अंतिम अरदास है ये जानाँ)