भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भागते-भागते हो गई दोपहर / विजय वाते

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:55, 29 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय वाते |संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते }} भागते-भागते हो ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भागते-भागते हो गई दोपहर|
मुँह छुपाने लगी रो पड़ी दोपहर|

सर पे साया उसे जो मिला ही नहीं,
तो सुबह ही सुबह आ गई दोपहर|

ताज़गी से भरे फूल खिलते रहें,
आग बरसती रुआँसी हुई दोपहर|

बूट पोलिश पुरूष कप प्लाटों में गम,
उसकी सारी सुबह खा गई दोपहर|

दिन उगा ही नहीं शाम छोटी हुई,
एक लम्बी सी हँफनी हुई दोपहर|