{KKGlobal}}
रात्रि-प्रहर की इस स्वप्न सभा में प्रिय तुम आना
सतरंगी विश्राम- भवन से कभी नहीं जाना ।
आज तक कभी मैंने मन का द्वार नहीं उढ़काया
अहं-सांकल न चढ़ाई न ताला कभी लगाया ।
खुले झरोखे बिछे प्रेम- दरीचे सजे दर्पण
देखो सीढ़ी चढ़कर, खाली राजा का आसन ।
नवकुसुमित अधर लिये हूँ शोभा तुम्ही बढ़ाना
पदचाप रहित मंद-मंद पग-पग बढ़ते जाना ।
युग बीते प्रेम घट रीते, इन्हें भरते जाना
कभी रनिवास जीते, षोडश शृंगार सजाना ।
सप्त सुरों की ध्वनियों में गलबहियाँ पहनाना
रोम-रोम झंकृत हो ऐसा तुम साज बजाना ।
रात्रि-प्रहर की इस स्वप्न सभा में प्रिय तुम आना
सतरंगी विश्राम- भवन से कभी नहीं जाना ।