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ग़म के शहर से निकल तो आया पर किस ओर तू जाएगा / विजय 'अरुण'
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ग़म के शहर से निकल तो आया पर किस ओर तू जाएगा
चारों ओर है रेत का सागर कैसे रस्ता पाएगा!
पारस जैसी चीज नहीं है ऐ सुनार! क्या तेरे पास
मेरे खोट को कर अब सोना कितना मुझे तपाएगा!
माना तेरी डोर है लंबी पर सूरज है दूर बहुत
इक पतंग से उसको छूना तेरी हंसी उड़ाएगा।
चांद का यह चांदी का गोला दूरी ही से बनता है
दूरी से धरती का गोला चांदी का बन जाएगा।
दीवानों में नंगे सिर जाने में उसे नहीं ख़तरा
मगर सयानों की महफ़िल में पगड़ी बांध के जाएगा।
ऋण तो मिला किसान को लेकिन खड़ी फ़सल बरबाद हुई
जो देता है अन्न जगत को ज़हर वही अब खाएगा।
भारत माँ के अंग-अंग से खून बहेगा विजय 'अरुण'
तलवारों से एक दूजे का जब तू ख़ून बहाएगा।