भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अाग शहर में फैल रही है / राहुल शिवाय

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:06, 23 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} {{KKCatNavgeet}} <poem>...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अाग शहर में फैल रही है
मगर सुरक्षित चूहे बिल में

भेद-भाव का यह दावानल
हरी घास भी लगा जलाने
भाषण में भी तेवर जागे
चली आग फिर आग बुझाने
शोर उठा है जग का मालिक
इस जग में है अब मुश्किल में

जिस हमीद के साथ राम की
होती थी कल ईद-दिवाली
आज एक-दूजे को घायल
कर वो बजा रहें हैं ताली
ढूँढ रहा है शहर मसीहा
बेदिल रहबर में, कातिल में

बचे हुए, अधजले शहर में
है विलाप, है शोर-शराबा
इधर आँच पर हाथ सेंकने
आया है फिर से इक दाबा
सदमा खा, सदमा देने की
उधर पल रही ख्वाहिश दिल में

रचनाकाल-29 जनवरी 2018