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बोझल है कितनी शाम—ए—जुदाई तेरे बग़ैर / साग़र पालमपुरी
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बोझल है कितनी शाम—ए—जुदाई तेरे बग़ैर
दुनिया लगे है दर्द की खाई तेरे बग़ैर
यूँ भी हमारी जान पे बन आई तेरे बग़ैर
इक साँस भी न चैन की आई तेरे बग़ैर
तेरे बग़ैर सूनी है ख़्वाबों की अंजुमन
महशर लगे है सारी ख़ुदाई तेरे बग़ैर
ले दे इक तू ही तो था सरमाया—ए—हयात
थी और क्या हमारी कमाई तेरे बग़ैर
तुम क्या गये कि रूठ गया वो भी साथ—साथ
दुनिया है अब नसीब—ए—दुहाई तेरे बग़ैर
गो अब के भी चमन की फ़जाओं पे था निखार
लेकिन हमें बहार न भाई तेरे बग़ैर
कलियाँ चटक रही थीं हवाओं में था सुरूर
कोई फ़ज़ा भी रास न आई तेरे बग़ैर
अपना रफ़ीक़, अपना मेह्रबान—ओ—ग़मगुसार
इक भी दिया न हम को दिखाई तेरे बग़ैर
क़ैद—ए—ग़म—ए—हयात से ‘साग़र’! तू ही बता
कैसे मिलेगी हम को रिहाई तेरे बग़ैर