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समझदार रिश्ते बनाते रहे हैं / सूरज राय 'सूरज'

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समझदार रिश्ते बनाते रहे हैं।
जो हैं नासमझ वह निभाते रहे हैं॥

किया पीठ पर वार तूने हमेशा
हमीं पीठ तेरी खुजाते रहे हैं

जिन्हें छोड़ आए हो व्रद्धाश्रम में
वो गोदी में तुमको सुलाते रहे हैं॥

तेरी याद थी या कि दारू की बोतल
क़दम ख़ुद-ब-ख़ुद लड़खड़ाते रहे हैं॥

छिड़कते रहे वह नमक हंसते-हंसते
मेरे घाव भी मुस्कुराते रहे हैं॥

हर इक गाम पर तुमने गर्दन बचाई
मगर हम गरेबाँ बचाते रहे हैं॥

वही पेड़ काटा है तूने जहाँ पे
परिंदे तुझे गुनगुनाते रहे हैं॥

उन्हें रोते देखा है मैंने फफककर
जो आँखों से आँसू चुराते रहे हैं॥

बुढ़ापा हंसी क्यूँ उड़ाता है मेरी
पिताजी भी यूँ बड़बड़ाते रहे हैं॥

क़फ़स की दीवारों पर हर्फ़े-रिहाई
उमीदों से लिख-लिख मिटाते रहे हैं॥

कहें हम भी क्या अपने बेटे को, हम ख़ुद
पिताजी के पैसे चुराते रहे हैं॥

हमारे मुक़द्दर में "सूरज" हटो भी
फ़क़त एक दिल है जलाते रहे हैं॥