भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैंने देखा था / प्रज्ञा रावत

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:34, 26 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रज्ञा रावत |अनुवादक=जो नदी होती...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने देखा था
पिता की उन आँखों को
जो ट्रेन के रुकते ही
चल पड़ी थीं
उस पगडण्डी पर
जो पहुँचती थी
बुन्देलखण्ड कॉलेज

अच्छा हुआ जो दिन थे
तपती हुई गर्मी के
सड़कें थीं सूनी
और घरों के दरवाज़े
लगभग बन्द
वरना कैसे लौट पातीं
वो आँखें वापस
अपने भरे-पूरे संसार में।