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धरती का मन / प्रज्ञा रावत

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जाने कब से प्यासा था
धरती का मन

एक दिन बादल ने कहा
कि वो उतरेगा
मावठे की बारिश बन
और थिरकने लगी
कुसमुसाती धरती
 
अनचाहा दबी कोंपलें
फूटने लगीं
लहलहाती झूमती फ़सल के लिए
कितनी ज़रूरी है मावठे की बारिश
 
कि अंग-अंग सिहर जाता है
धरती का

कि धरती,
धरती होने का
सुख भोगती है।