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चेख़व का बिम्ब / कुमार मुकुल

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चेखोव का बिम्ब

ऊंचे कद-काठी की लकदक देह पर झूलते ढीले सफेद कुरते में दोलती कोई न्यूकमर प्रशासिका थी वह अपने गदराए काले बुलडाग से उसके लाड़ को देख यह साफ़ था कि वह ... या ... है कुत्ते के गले में कोई शिक्कड़ नहीं था बस बेल्ट थी पर युवती की निगाहों और इशारों के बंधन को वह बखूबी समझ रहा था उसकी चील सी काउंस आंखों में लाड़ में लोटते हुए भी एक तीखी शिकारी चमक थी सर्किट हाउस के फर्श पर पंजों के बल दोलती युवती के डोलते वक्ष दो अन्य झबरों से लग रहे थे जिन्हें अपने झबरेपन से अंधी होती आंखों और सिर पर किसी स्पर्श की प्रतीक्षा थी उनकी कुकुआहट साफ़ सुनी जा सकती थी युवती की आंखों पर हल्का काजल था या आंखें ही सुरमयी थीं पता नहीं जो कुत्ते पर केंद्रित थीं

अब कुत्ते को बाहर छोड़ युवती ने किवाड़ भिड़का ली घूम-घाम कर कुत्ते ने हल्की दस्तक दी और अंदर हो गया और चेखोव की सफेद कुत्तों वाली महिला का बिम्ब बाधित हुआ जिसे पड़ोस की बालाएं जीवित करती रहती थीं और - जीवन को बच्चों की बाधाओं से मुक्त रखने के आकांक्षी पत्रकार एसपीसिंह का दुख याद आया जो उनके मृत कुत्ते के प्रति प्रतिबद्ध था।

आसमानों को

आसमानों को फुनगियों पर उठाए कैसे उन्मुक्त हो रहे है वृक्ष आएं बटाएं इनका भार और मुक्त होकर हंसें हंसें ठहाके लगाएं हंसें कि आसमान कुछ और ऊपर उठ जाए।

बारिश

भादो की ढलती इस सांझ लगातार हो रही है बारिश

हल्की दीखती बमुश्किल

उसकी आवाज सुनने को धीमा करता हूं पंखा पत्तों से, छतों से आ रही हैं टपकती बड़ी बूंदों की टप-चट-चुट की आवाज़ें छुपे पक्षी निकल रहे हैं अपने भारी-भीगते पंखों से कौए भरते हांफती उड़ान उधर लौट रहा मैनाओं का झुंड अपेक्षाकृत तेजी से पंखों पर जम आती बूदों को झटकारता।

पहाड़

कैसा वलंद है पहाड़ एक चट्टान जैसे खड़ी होती है आदमी के सामने उसका रुख मोड़ती हुई खड़ा है यह हवाओं के सामने

चोटी से देखता हूं चींटियों से रेंग रहे हैं ट्रक इसकी छाती पर जो धीरे-धीरे शहरों को ढो ले जाएंगे पहाड़ जहां वे सड़कों, रेल लाइनों पर बिछ जाएंगे बदल जाएंगे छतों में

धीरे-धीरे मिट जाएंगे पहाड़ तब शायद मंगल से लाएंगे हम उनकी तस्वीरें या बृहस्पति, सूर्य से बाघ-चीते थे तो रक्षा करते थे पहाड़ों की, जंगलों की आदमी ने उन्हें अभयारण्यों में डाल रखा है अब पहाड़ों को तो चििड़याखानों में रखा नहीं जा सकता प्रजनन कराकर बढ़ाई नहीं जा सकती इनकी तादाद

जब नहीं होंगे सच में तो स्मृतियों में रहेंगे पहाड़ और भी खूबूसरत होते बादलों को छूते से हो सकता है वे काले से नीले, सफ़ेद या सुनहले हो जाएं द्रविड़ से आर्य हुए देवताओं की तरह और उनकी कठोरता तथाकथित हो जाए वे हो जाएं लुभावने केदारनाथ सिंह के बाघ की तरह।

एक कुत्ते की तरह चांद

इस बखत ठंड भयानक है और ठिठुरता हुआ मैं बैठा हूं कमरे में बाहर चांद एक कुत्ते की तरह मेरा इंतज़ार कर रहा होगा अभी मैं निकलूंगा और पीछे हो लेगा वह कभी भागेगा आगे-आगे बादलों में कभी अचानक किसी मोड़ पर रुककर लगेगा मूतने और फिर भागता चला जाएगा आगे।

चेहरा

सूरज सिर पर हो तो मैं नहीं समझता कि आदमी का चेहरा साफ दिखता है आंखें चौंधियाती सी हैं

चांदनी में चेहरा दिखता तो है पर पढ़ा नहीं जाता

गोधूलि और प्रात अच्छे हैं जब चेहरे खिलते और बोलते हैं

पर तारों की रोशनी में तो रह ही नहीं जाता चेहरा पूरी देह होती है चुप्पी में डोलती अन्धे शायद सही समझते हों तारों भरी रात की भाषा जिसे वे बजाते हैं अक्सर और प्रेमी भी जो बचना चाहते हैं तेज रौशनी से जिनके लिए आंख की चमक भर रौशनी ही काफी होती है।

चांद-तारे

कांसे के हसिए सा पहली का चांद जब पश्चिमी फलक पर भागता दिखता है तब आकाश का जलता तारा चलता है राह दिखलाता दूज को दोनों में पटती है और भी भाई-बहन से वे साथ चहकते हैं पर तीज-चौठ को बढ़ती जाती है चांद की उधार की रौशनी और तारा तेजी से दूर भागता सिमटता जाता है खुद में आकाश में और भी तारे हैं जो जलते नहीं टिमटिमाते हैं पर वे चांद को जरा नहीं लगाते हैं निर्लज्ज चांद जब दिन में सूरज को दिया दिखलाता है तारों को यह सब जरा नहीं भाता है।

महानगर

सुबहें तो तुम्हारी भी वैसी ही गुंजान हैं चििड़यों से-कि किरणों से व भीगी खुशबू से

बस तुम ही हो इससे बेजार कुत्ते की मानिन्द सोते रहते हो

तुम्हारे नाले विराट हैं कितने बलखाती विविधताओं से पछाड़ खाते और नदियों को बना डाला है तुमने तन्वंगी और तुम्हारी स्त्रियां कैसी रंगीन राख पोते भस्म नजरों से देखती गुजरती जाती हैं।