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तुम्हारा पीठ / श्वेता राय

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तुम्हारी पीठ
विश्व की सबसे प्रचीनतम
संस्कृति के उद्घोष की भूमि है

जिसपर मान्यताओं की ईटों से सभ्यताओं की दीवारें
विधिगत चुनी गई हैं

यहाँ पर
भिन्न भिन्न दायित्वों की समतल सड़कें
एक दूसरे को समकोण पर काटती हुई यूँ बिछी हैं
कि सम्पूर्ण जीवन रीतियों के
सुनियोजित जाल में बंधा सा लगता है

तुम्हारी पीठ के मध्य में
स्थापित है
कुँए से जल निकालने की प्राचीन विधियाँ
जिनके किनारे पर स्थित है आकांक्षाओं के स्नानागार

ये एक नहीं
अपितु बहुचरण में जानती हैं
ओढ़ने, ओढ़ाने
बिछा ने और बिछ जाने की कलाएं

हाथी दांत की तरह मजबूत तुम्हारी पीठ
हो जाती है
मनकों सी हल्की
जब इसको छूता है कोई प्रेमिल स्पर्श

पीढियां गुजारती हैं
इनपर उकेरते हुए अपना नाम
सदियां थक जाती हैं इनपर से बुहारते हुए
न मिटने वाले काम

अविचलता
अडिग

स्वंय की पूर्णता के लिए ये सतत रहती हैं संघर्षरत

इनकी पहचान
प्रयाग के प्रशस्ति स्तम्भ सी है
जिस पर खुदा हुआ है
एक सम्पूर्ण जीवन वृत..

यहाँ फैले हुए हैं
यश अपयश के शिलालेख

ये वो तटबन्ध हैं
जो देते हैं नदियों को खुल कर बहने की आज्ञा
जिन्हें गाहे बगाहे लील भी जाती हैं वही नदियां

युद्ध में करनी होती हैं इसकी सुरक्षा
और प्रेम में
ये नाखूनों से होकर लहूलुहान
जानते हैं लिखना संकल्प पत्र
समर्पण का

ये धरती के विपरीत
जानते हैं आसमान को उठा लेना
तो आसमान के सम्मुख
ये देते हैं ओट धरा को

तुम्हारी पीठ पर
पाँव टिका कर हौसलों को मिलती है उड़ान

तुम्हारी पीठ पर
धूनी रमा नव किसलय
सीखते हैं हवा की सवारी

तुम्हारी पीठ
बस तुम्हारे लिए नही है आरामगाह,
जिसे जमीन से टिका तुम आँख में भरते हो आसमान

तुम्हारी पीठ
तुम्हारी प्रेयसी के लिए सागर का वो ओर छोर है
जिसे वो अपने दोनों बाँहों में भर
समझती हैं स्वंय को
धरा की अकूत संपदा की मालकिन, जो है

अमोल
अनमोल
अमूल्य

बताओ भला!

कौन सी स्त्री नही चाहेगी
यूँ सागर के हाहाकार को बाँध लेना...

【पुरुष सौंदर्य】