भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ढील मारती लड़की / सीमा संगसार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:28, 6 मार्च 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सीमा संगसार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
तुम फेंक देते हो
वह थाली
जिसमें मैं झाँकती हूँ
अपने अक्स को
मेरी परछाइयाँ भी
तुम्हें उद्विग्न कर देते हैं...
तुम्हारे प्रार्थना घरों के देवता
भाग खङ़े होते हैं
मेरी पदचाप सुनकर!
जिस कूंए से होकर मैं गुजरती हूँ
खारा हो जाता है
उसका मीठा पानी
एक त्याज्य व अछूत कन्या
होते हुए भी
तुम रांधते हो मेरी देह को
मरी हुई मछलियों की तरह!
जो स्वादहीन व गंधहीन होकर भी
तुम्हारे भोजन में
घुल जाती हूँ नमक की तरह...