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अछूत / सीमा संगसार
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तुम फेंक देते हो
वह थाली
जिसमें मैं झाँकती हूँ
अपने अक्स को
मेरी परछाइयाँ भी
तुम्हें उद्विग्न कर देते हैं...
तुम्हारे प्रार्थना घरों के देवता
भाग खङ़े होते हैं
मेरी पदचाप सुनकर!
जिस कूंए से होकर मैं गुजरती हूँ
खारा हो जाता है
उसका मीठा पानी
एक त्याज्य व अछूत कन्या
होते हुए भी
तुम रांधते हो मेरी देह को
मरी हुई मछलियों की तरह!
जो स्वादहीन व गंधहीन होकर भी
तुम्हारे भोजन में
घुल जाती हूँ नमक की तरह...