भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चेहरा / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:15, 30 जून 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूरज सिर पर हो

तो मैं नहीं समझता

कि आदमी का चेहरा साफ़ दिखता है

आँखें चौंधियाती सी हैं


चांदनी में चेहरा दिखता तो है

पर पढ़ा नहीं जाता


गोधूलि और प्रात अच्छे हैं

जब चेहरे खिलते और बोलते हैं


पर तारों की रोशनी में

तो रह ही नहीं जाता चेहरा

पूरी देह होती है चुप्पी में डोलती

अन्धे शायद सही समझते हों

तारों भरी रात की भाषा

जिसे वे बजाते हैं अक्सर

और प्रेमी भी

जो बचना चाहते हैं तेज़ रौशनी से

जिनके लिए आँख की चमक भर रौशनी ही

काफ़ी होती है।